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दल बदल कानून की प्रासंगिकता?

लेखक- चैतन्य भट्ट

हरियाणा में 1967 में एक विधायक हुए थे गया लाल। एक दिन में ही कांग्रेस से जनता पार्टी में गए, फिर कांग्रेस में आए। वापस जनता पार्टी में सिधारे और फिर पुनः कांग्रेस में पधारे। उनकी इस क्रांतिकारी पहल ने ऐसी बयार चलाई कि देश में अगले 12 महीने में ही 400 से ज्यादा दल-बदल हुए। 116 दल बदलुओं ने मंत्रिपद का प्रसाद भी पाया। दल बदल विरोधी कानून की जरूरत महसूस कराने का श्रेय इन्हीं गया लाल जी को जाता है।

1972 से 75 का समय छोड़ दें तो राजनीति सारा समय जोड़ तोड़ पर टिकी रही। ऐसे ऐसे कारनामे हुए कि पूछिए मत। घर-घुसड़म्मा शब्द निराकार से साकार होता रहा। बच्चे नाम याद नहीं कर पाते थे और प्रधानमंत्री बदल जाता। एक तो ऐसे भी हुए जिन्होंने बिना संसद का सामना किए ही भूतपूर्व की गति पाई। अंततः1985 में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार के कार्यकाल में ही दल-बदल विरोधी कानून लागू हो सका। अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ने , अन्य दल में शामिल होने, पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट देने या वोटिंग से अलग रहने जैसे मामलों में जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित करने जैसे प्रावधान हुए।

सच्चा कानून तो यही होता कि दल बदलते ही बिना किसी किंतु-परंतु के सदस्यता चली जाए। मगर राजनीति एक घर छोड़कर चलती है। क्या पता कब जरूरत पड़ जाए? सो कानून में पतली गलियां रखी गईं। मसलन मूल राजनीतिक दल के दूसरे दल में विलय या दो-तिहाई सदस्यों से ज्यादा की विलय के लिए सहमति पर कानून लागू नहीं होगा। कालांतर में दलबदलू परंपरा में नए आयाम भी जुड़े। अन्य दल में शामिल होकर सौदेबाज़ी की ताक़त नहीं रहती। सो दल तोड़कर नया दल बनाने और समर्थन के लिए सौदेबाज़ी का नया अध्याय शुरू हुआ। आज इसी का बोलबाला है।

कानून में सदन के अध्यक्ष को सदस्य की अयोग्यता को लेकर फैसला करने का अधिकार हैं। वे दिन गए जब अध्यक्ष पार्टी निष्ठा त्याग निष्पक्ष रूप से कार्य करता था। आज उसका अपनी पार्टी के मामले में निष्पक्ष रहना कल्पना से परे है। अध्यक्ष द्वारा फैसला सुनाने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है। फैसला लटकाकर अदालत जाने का दरवाजा मजे से रोका जा सकता  है। महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस के विभाजन का घटनाक्रम ताजा उदाहरण है। चुनाव सुधारों पर गठित दिनेश गोस्वामी कमेटी की सिफारिश है कि अयोग्यता पर फैसले का अधिकार राष्ट्रपति या राज्यपाल को हो जो चुनाव आयोग की सलाह पर काम करे। मगर संवैधानिक पदों की गरिमा का जैसा अवमूल्यन हुआ है उसके चलते लगता नहीं कि ऐसी सिफारिश लागू होने पर भी परिस्थितियां बदलेंगी।

आज राजनीति सेवा नहीं व्यवसाय है और चुनाव इंवेस्टमेंट। चनावी खर्च की निर्धार्रित सीमा देख कर हंसी आती है। प्रत्याशियों द्वारा दिए खर्च का ब्यौरा मसखरी लगता है। पार्टी और विचारधारा के प्रति निष्ठा के दिन लद गए हैं। व्यक्तिगत लाभ के लिए पाला बदलने में नेता दो मिनट भी नहीं लगाते। चुनाव में पैसा लगाया है तो निकालना तो पड़ेंगा न? इसी कार्यकाल में। फिर मौका मिले या नहीं?

240 की संख्या पर रुक गई केंद्रीय भाजपा सरकार छोटी पार्टियों के समर्थन पर मजबूर है। स्पष्ट बहुमत नहीं है मगर बिना विचार विमर्श निर्णय लेने की संसदीय निरंकुशता क़ायम है। अंग्रेजी कहावत है : ओल्ड हैबिट्स डाई हार्ड। पुरानी आदतें जल्दी नहीं जातीं। कदम उठाते हैं कि वापस लेना पड़ता है। कलेजा छटपटाता है: ऐसा कब तक चलेगा? दूसरों के घर तोड़कर खुद का घर बसाने की उसकी क्षमता दस सालों में दसियों बार साबित हुई है। कम सदस्यों वाली पार्टियों में दल-बदल कराना बनिस्बत सरल भी है। इसलिए समर्थक दल सशंकित हैं। जाने कब यह आग उनके अपने दरवाजे तक पहुंच जाए? जब तब असंतोष दिखा देते हैं। मगर सत्ता की गोंद चिपकाए हुए है।

दलीय चुनावी प्रक्रिया में मतदाता व्यक्ति नहीं बल्कि पार्टी की विचारधारा को वोट देता है। वरना पार्टियों की टिकट के लिए यूं मारामारी न होती। सदन निर्दलीयों से भरे होते। अपने जनप्रतिनिधि के दल बदलने पर भौंचक मतदाता स्वयं को ठगा महसूस करता है। सोचता है, उस विचारधारा का क्या हुआ जिसके खिलाफ या समर्थन में उसने वोट दिया था?

हिमाचल सरकार ने दलबदलू विधायकों को पेंशन न देने का विधेयक पास किया है। दगाबाजों को जनता की गाढ़ी कमाई से पैंशन पाने का अधिकार होना भी नहीं चाहिए। कदम सराहनीय है मगर पर्याप्त नहीं। दल बदल के फायदों के सामने पेंशन की हैसियत मूंगफली से ज्यादा नहीं है।

सवाल लाजिमी है : क्या दल बदल कानून वर्तमान स्वरूप में प्रासंगिकता खो चुका है? जवाब यकीनन हां होगा। कानून प्रभावी होता तो दलबदल कब का रुक गया होता। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए मतदाता से किया गया प्रजातांत्रिक विश्वासघात है। इसके लिए बिना किसी किंतु परंतु के सदन से अयोग्यता के अलावा कोई भी सजा कम है। अगर नेता को मुगालता है कि उसे जनमत पार्टी विचारधारा नहीं बल्कि खुद की लोकप्रियता के दम पर मिला है तो जाए और पुनः जनमत प्राप्त करे। चुनाव में हुए सरकारी खर्च का समानुपातिक व्यय वसूल करने जैसी कड़ी शर्त भी रखी जा सकती है। अगर ऐसे कड़े प्रावधान नहीं बने तो दल-बदल धर्म के आराध्य देव गयालाल जी की बनाई यशश्वी परंपरा सदैव कायम रहेगी।

#anugamini

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