गंगटोक । सिक्किम विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के अनुसंधानकर्ता मधुसूदन खनाल ने सिक्किम विश्वविद्यालय, जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान और भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के अनुसंधानकर्ताओं, प्रोफेसरों और वैज्ञानिकों के साथ मिलकर गंगटोक के रे घाटी के बांस के जंगल में एक बहुत ही दुर्लभ स्थलीय आर्किड Didymoplexiella siamensis की खोज की है। सिक्किम का भारत की आर्किड संपदा में एक शानदार योगदान है।
भारत के लिए नई रिपोर्ट एक प्रतिष्ठित पादप पत्रिका-फेडेस रिपरटोरियम में प्रकाशित हुई है। ये ऑर्किड स्थलीय होलोमाइकोट्रॉफ़ हैं। इनमें क्लोरोफिल नहीं होता, इसलिए ये संगत कवक पर निर्भर होते हैं। वास्तव में, यह भी कहा जा सकता है कि ये ऑर्किड कवक पर परजीवी होते हैं और उससे कार्बन ग्रहण करते हैं। इसलिए इन्हें होलो माइकोपैरासाइट कहना सही शब्द होगा। ये स्थलीय ऑर्किड बहुत दुर्लभ हैं, क्योंकि ये केवल कुछ निश्चित जगहों में ही उगते हैं, जहां अनुकूल कवक मौजूद होते हैं और बहुत कम समय के लिए खिलते हैं। पूरे वर्ष वे भूमिगत रहते हैं तथा पर्याप्त वर्षा होने पर तेजी से अंकुरित होकर फूलते हैं।
मधुसूदन खनाल ने बताया कि उनकी फेनोलॉजिकल समय-सीमा बहुत कम होने के कारण, वे अक्सर छूट जाते हैं। मधुसूदन कहते हैं कि होलोमाइकोट्रॉफ्स ऑर्किड जगत के मशरूम हैं। उन्होंने कहा कि जून 2023 के दौरान जब मैं रे वैली में आर्किड के लिए बांस के बागों की जांच कर रहा था, तो मुझे सड़े हुए बांस के पत्तों के ढेर से उगते हुए कुछ पतले अंकुर दिखाई दिए, जिनमें शीर्ष कलियां थीं। शुरू में मैंने सोचा कि यह डिडिमोप्लेक्सिस है, जो इस क्षेत्र में मौजूद एक और सामान्य होलो माइकोट्रोफिक आर्किड है। अगले दौरे पर मैंने देखा कि वे डिडिमोप्लेक्सिस से भी अधिक लम्बे थे, जिससे मुझे इस प्रजाति के बारे में संदेह हुआ। आगामी दौरे के दौरान तापमान में अचानक वृद्धि के कारण अधिकांश फूल सूख गए थे। उन्होंने कहा कि मैं एक ही उप-जनसंख्या में से केवल 12 फूलों को ही देख पाया। उन्होंने कहा कि पौधे काफी लम्बे थे, उन पर छोटे गुलाबी फूल थे तथा फूलों में हल्की फलों जैसी सुगंध थी।
स्टीरियोमाइक्रोस्कोप के तहत विस्तृत अवलोकन और प्रासंगिक साहित्य से परामर्श के परिणामस्वरूप इसकी पहचान डिडिमोप्लेक्सिएला सियामेन्सिस के रूप में हुई, जो भारत में आर्किड की एक नई प्रजाति है। बाद में केवल 4 में फल लगते देखे गए। वर्तमान में यह चीन (ताइवान सहित), थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम और जापान में पाया जाता है। डिडिमोप्लेक्सिएला सियामेन्सिस में क्लोरोफिल नहीं होता है, यह फूल आने की अवधि को छोड़कर जीवन भर भूमिगत रहता है और कवक पर निर्भर रहता है। इसके साथ ही यह भारत का एकमात्र ऐसा होलोमाइकोट्रॉफ़ भी होगा, जिसकी सुगंध मीठी होगी।
उन्होंने कहा कि गैस्ट्रोडिया, लेकनोर्किस और गैलेओला जैसे अन्य होलो माइकोट्रोफिक ऑर्किड में खराब सुगंध होती है। रे खोला एक पिकनिक स्थल की तरह है, जहां निरंतर मानवजनित गतिविधियां होती रहती हैं और ये प्रजातियां नदी के किनारे बांस के पेड़ों के बीच उगती हैं। उन्होंने कहा कि रे का हालिया दौरा काफी निराशाजनक था, क्योंकि अधिकांश बांस काट दिए गए हैं और प्लास्टिक का कूड़ा काफी बढ़ गया है। मधुसूदन ने चिंता व्यक्त किया कि लोगों ने क्षेत्र से पत्तियों का कूड़ा-कचरा भी इकट्ठा करना शुरू कर दिया है, जो इन दुर्लभ आर्किड फूलों के लिए हानिकारक है।
उन्होंने कहा कि हमने स्थानीय लोगों को उनकी दुर्लभ संपदा के संरक्षण के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया है और हमें उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। वन विभाग या किसी राष्ट्रीय संगठन का हस्तक्षेप ही उनके संरक्षण के लिए एकमात्र उचित विकल्प होगा। उन्होंने कहा कि यदि इस गड़बड़ी को नजरअंदाज किया गया, तो इस बात की पूरी संभावना है कि हम निकट भविष्य में इन रत्नों को खो देंगे।
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