गेजिंग : भारत के पूर्वोत्तर में स्थित सिक्किम, दार्जिलिंग और कालिंपोंग जैसे हिमालयी इलाकों में निवास करने वाले विभिन्न जातीय समुदायों की अपनी विशिष्ट पहचान, भाषा, पहनावा और विशेष रूप से घर बनाने की पारंपरिक शैली रही है। ये घर केवल आवासीय संरचनाएं नहीं हैं, बल्कि वे संस्कृति, इतिहास और सामाजिक पहचान के जीवंत दस्तावेज हैं। लेकिन आज ये पारंपरिक जातीय घर धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, जिससे ग्रामीण पर्यटन की संभावनाएं प्रभावित हो रही हैं। पारंपरिक घरों का सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व है। पारंपरिक जातीय घर किसी भी समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समझ का प्रतिबिंब होते हैं।
तमांग समुदाय के चोक-बाबा शैली के घर, नेवारों के पगोडा शैली में निर्मित भवन, या भूटिया समुदाय के पत्थर और लकड़ी से बने घर सभी स्थानीय मौसम, भौगोलिक स्थिति और जीवनशैली के अनुरूप विकसित वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये घर पर्यटकों को स्थानीय संस्कृति और जीवनशैली को निकट से अनुभव करने का अवसर प्रदान करते हैं, जिससे ग्रामीण पर्यटन को बल मिलता है। आधुनिकीकरण के कारण मौलिकता मिट रही है। पिछले कुछ दशकों में आधुनिक निर्माण तकनीक, सस्ते निर्माण सामग्री की उपलब्धता और बदलती जीवनशैली के चलते पारंपरिक घरों का अस्तित्व संकट में आ गया है। गांवों में अब बिल्डिंग बनाने की होड़ है। पक्का घर, सीमेंट की दीवारें, लोहे की खिड़कियां और टाइल्स को आज सुविधा और इज्जत का प्रतीक माना जाने लगा है। परिणामस्वरूप, मिट्टी, पत्थर और लकड़ी से बने पारंपरिक घर पिछड़ेपन और गरीबी का प्रतीक माने जाने लगे हैं।
कई गांवों में ऐसे घरों के मालिकों की सामाजिक प्रतिष्ठा भी कम होती देखी जा रही है। जो घर कभी इज्जत का प्रतीक थे, आज वे ही उपेक्षा का शिकार हैं, जबकि वही घर अब पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बन सकते हैं। वर्तमान में ग्रामीण पर्यटन की अवधारणा खासकर होमस्टे, जातीय संस्कृति का अवलोकन, स्थानीय व्यंजन, लोक-नृत्य और पारंपरिक जीवनशैली पर्यटकों के बीच लोकप्रिय हो रही है। लेकिन जब पर्यटक गांवों में पहुंचकर हर तरफ आधुनिक शहरीकरण का प्रभाव देखते हैं, तो उन्हें मौलिकता और प्रामाणिकता की कमी महसूस होती है। छोटे-छोटे गांव भी अब कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हैं। इसके कारण ग्रामीण पर्यटन की संभावनाएं घटती जा रही हैं।
नेपाल जैसे पड़ोसी देश में आज भी ऐसे पारंपरिक घर बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं, जहां त्योहारों और सांस्कृतिक आयोजनों में इन घरों का महत्व अत्यधिक है। अब जरूरत है एक सामूहिक चेतना की, जो पारंपरिक जातीय घरों के संरक्षण और पुनर्स्थापना के लिए समुदाय और नई पीढ़ी को प्रेरित करे। कुछ गांवों ने इस दिशा में सकारात्मक पहल शुरू कर दी है, जहां पारंपरिक घरों को होमस्टे में तब्दील कर न केवल पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है, बल्कि संस्कृति की भी रक्षा की जा रही है। विद्यालयों और सामाजिक संस्थाओं में हमारा घर, हमारा गर्व जैसे अभियान चलाए जाने चाहिए, ताकि नई पीढ़ी अपने इतिहास और पहचान को गर्व से अपना सके। पारंपरिक जातीय घरों का लोप केवल एक वास्तुकला का नाश नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षति है। इसका सीधा असर ग्रामीण पर्यटन और स्थानीय आत्म-सम्मान पर पड़ता है।आज जब पूरी दुनिया विविधता और प्रामाणिकता की तलाश में है, तब हमारे पारंपरिक घर हमारे भविष्य का आधार बन सकते हैं, बशर्ते हम चेत जाएं। राज्य में ऐसे पारंपरिक घर अब 5 प्रतिशत से भी कम बचे हैं। अगर यही रुझान जारी रहा, तो अगले कुछ वर्षों में यह धरोहर पूरी तरह से लुप्त हो सकती है।
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