गंगटोक : सिक्किम में कामी, दमाई और सार्की समुदायों के ईसाई सदस्यों के लिए संवैधानिक मान्यता, स्थायी सुरक्षा और समान अधिकारों की मांग ऑल सिक्किम इसाई कामी दमाई सार्की वेलफेयर एसोसिएशन ने की है।
गौरतलब है कि अपने जातीय पहचानों के तहत ऐतिहासिक और सामाजिक मान्यता प्राप्त होने के बावजूद इन समूहों के ईसाई लोग अनुसूचित जाति के लाभों से वंचित हैं। 6 जुलाई, 1978 की केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक अधिसूचना ने अनुसूचित जाति का दर्जा केवल हिंदुओं, बौद्धों और सिखों तक ही सीमित कर दिया था। यह आदेश 12 जुलाई, 1978 को सिक्किम पर भी लागू कर दिया गया और निचली जाति के ईसाई समुदायों को मान्यता से वंचित रखा गया।
मंगलवार को यहां आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एसोसिएशन के सलाहकार देव कुमार विश्वकर्मा ने कहा कि यह अधिसूचना एक संवैधानिक विरोधाभास को उजागर करती है। उन्होंने कहा, संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन जब कोई कामी, दमाई या सार्की व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो उससे उसकी अनुसूचित जाति का दर्जा छीन लिया जाता है। हमारी सामाजिक स्थिति अपरिवर्तित रहती है-फिर भी हमें मान्यता नहीं दी जाती।
विश्वकर्मा ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि जहां अन्य भारतीय राज्यों में निचली जाति के ईसाइयों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, वहीं सिक्किम के ईसाइयों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे उन्हें कोई औपचारिक वर्गीकरण या सुरक्षा नहीं मिलती।
हालांकि, 2018 में राज्य सरकार ने “कमजोर वर्ग” श्रेणी के तहत समुदाय के लिए नौकरियों में 2 प्रतिशत आरक्षण दिया था, लेकिन एसोसिएशन का कहना है कि यह एक अस्थायी राहत थी, न कि कोई संवैधानिक सुरक्षा। संगठन अध्यक्ष पूर्ण विश्वकर्मा ने कहा, हमारी पहचान के बिना एक दर्जा है। हमें पंचायत चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है, हमारे रोजग़ार कार्ड रोक दिए गए हैं क्योंकि हमें जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किए गए हैं, और हमारा कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है। यह स्पष्ट भेदभाव है।
इसके साथ ही एसोसिएशन ने सिक्किम में समुदाय के लंबे इतिहास पर प्रकाश डाला, जो 1843 में छोग्याल की अनुमति से ईसाई मिशनरियों ने यहां आना शुरू किया। 1930 के दशक तक आधिकारिक तौर पर चर्चों का निर्माण हो चुका था। सदस्यों ने कहा, छोग्याल ने हमें जो दिया था, उसे 1978 की अधिसूचना से नहीं छीना जा सकता। उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 का भी हवाला दिया, जो राष्ट्रपति को (राज्यपाल के परामर्श से) प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जातियों को परिभाषित करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 341(2) के तहत संसद को इन सूचियों में संशोधन करने का अधिकार है। एसोसिएशन ने बताया कि बौद्ध दलितों को 1990 में इस सूची में शामिल किया गया था, जिससे समावेशन के लिए एक मिसाल कायम हुई।
ऐसे में, एसोसिएशन ने कानूनी उपाय अपनाने और जरूरत पड़ने पर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की भी बात कही। अध्यक्ष ने कहा, हम अस्थायी समाधान नहीं, बल्कि विधानसभा के माध्यम से एक स्थायी समाधान चाहते हैं। हम राज्य सरकार से एक विधेयक पेश करने की मांग करते हैं जो हमें मान्यता प्रदान करने के साथ ही हमारे आरक्षण को 2 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत करे और पंचायत एवं नगरपालिका चुनावों में हमारी भागीदारी सुनिश्चित करे।
उल्लेखनीय है कि 2011 की जनगणना के अनुसार, सिक्किम में कामी, दमाई और सार्की समुदायों के 40,000 से ज्यादा ईसाई सदस्य हैं। एसोसिएशन ने दोहराया कि यह मांग धर्म के बारे में नहीं, बल्कि न्याय, समानता और मान्यता के बारे में है।
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