नई दिल्ली (ईएमएस)। चीफ जस्टिस (सीजेआई) बीआर गवई ने कहा कि तकनीक एक दोधारी तलवार की तरह है। इसका उपयोग न्यायिक कामकाज को बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए, न कि फैसले लेने की प्रक्रिया की जगह लेने के लिए। सीजेआई सोमवार को कैंब्रिज विश्वविद्यालय में ‘न्याय तक पहुंच में तकनीक की भूमिका’ विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि भारत जैसे बड़े और विविध देश में न्याय तक पहुंच को आसान बनाने में तकनीकी की बहुत बड़ी भूमिका हो सकता है। भारतीय न्यायपालिका ने तेजी से तकनीक को अपनाया है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को न्याय मिल सके।
उन्होंने कहा, हमें यह भी मानना होगा कि तकनीक एक दोधारी तलवार की तरह काम कर सकती है, जो असमानता को और बढ़ा सकती है। एक बड़ी चिंता ‘डिजिटल डिवाइड’ यानी तकनीकी असमानता है, जहां इंटरनेट, उपकरणों और डिजिटल ज्ञान की समान पहुंच न होने के कारण वे लोग पीछे छूट सकते हैं जो पहले से ही न्याय तक पहुंचने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। अगर तकनीक को सच में न्याय के लिए इस्तेमाल करना है, तो उसकी योजना बनाते समय समानता और समावेशन को आधार बनाना होगा।
हालांकि, जस्टिस गवई ने कहा कि नीतिगत दखल के बिना न्याय प्रदान करने की प्रणाली में कोई क्रांति नहीं लाई जा सकती। उन्होंने कहा, शासन का ऐसा ढांचा विकसित किया जाना चाहिए, जो मानवीय निगरानी, एल्गोरिदम संबंधी पारदर्शिता और तकनीक आधारित मध्यस्थ फैसलों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करे।
सीजेआई गवई ने आगे कहा, आगे बढ़ने का रास्ता बुनियादी सिद्धांतों का पालन मांगता है। तकनीक का इस्तेमाल न्यायिक काम को खत्म करने के लिए नहीं, बल्कि उसे बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए, खासकर सोच-समझकर फैसले लेने और हर मामले को अलग-अलग देखने में। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि स्वचालिक प्रणाली (ऑटोमैटिक सिस्टम) न्यायिक सोच की जगह न लें, बल्कि उसकी मदद करें।
सीजेआई गवई ने कहा, न्याय तक पहुंच किसी भी निष्पक्ष और न्यायसंगत कानून प्रणाली की रीढ़ का प्रतिनिधित्व करती है। यह सुनिश्चित करता है कि सभी व्यक्ति कानूनी प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग ले सकें और उनसे लाभ उठा सकें, भले ही उनकी सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक या व्यक्ति स्थिति कुछ भी हो। उन्होंने कहा कि ऐसे देश में जहां दो-तिहाई से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और 121 से अधिक भाषाएं-मातृभाषाएं बोली जाती है, वहां अदालतों तक बराबर पहुंच देना केवल सांविधानिक ही नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी भी है।
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