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मादल की थाप से गूंजी पहाडि़यां

कमल लामिछाने जैसे मादल निर्माता कला का जीवित रखने को कर रहे संघर्ष

सुजल प्रधान
गंगटोक, 13 नवम्बर । दशईं और तिहार की शुरुआत के साथ ही सिक्किम की पहाडि़यां नेपाली संस्कृति के अभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्र मादल की थाप से गूंज उठती है। प्यार और संस्कृति को बढ़ावा देने वाले एवं सांस्कृतिक रुप से महत्वपूर्ण मादल का इलाके की विभिन्न जनजातियों के त्योहारों में एक महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे में इस वाद्य यंत्र के निर्माण से जुड़े कलाकारों के लिए यह समय अच्छे दिनों की तरह होता है। लेकिन इसके बावजूद मादल निर्माण एक लुप्त होती कला है, जिसे रानीपूल के टम्बूटार निवासी कमल लामिछाने जैसे कुछ कारीगरों ने जीवित रखा है। तिहार का समय कमल जैसे कलाकरों के लिए न केवल बेहतर आर्थिक उपार्जन का अवसर लाता है बल्कि विभिन्न उत्सवों में वाद्ययंत्र की मनमोहक धुनों से भी गूंजता है।

रोशनी के त्योहार तिहार (दीपावली) के दौरान मादलों की काफी मांग रहती है। ऐसे में पिछले पांच दशकों से मादल निर्माण कर रहे कमल लामिछाने की व्यस्तता भी बढ़ गई है। इन हस्तनिर्मित वाद्य यंत्रों की कीमत उन्हें बनाने में प्रयुक्त सामग्री के आधार पर 1500 से 12000 रुपये तक होती हैं और इस सीजन के दौरान कमल अच्छी-खासी कमाई भी कर लेते हैं। इस त्योहारी सीजन के बारे में उन्होंने कहा, मैंने लगभग एक लाख रुपये कमाए हैं। मेरे पास आजकल खाने का भी समय नहीं है क्योंकि लोगों को देउसी-भैलो खेलने के लिए अपने मादल की जरूरत होती है। उन्होंने कहा, तिहार के दौरान अच्छी आय होती है। बाजार में एक नए मादल की कीमत लगभग 3000 रुपये है, लेकिन इस पेशे को अपनाने वाले कम लोगों के कारण मादल बनाने के व्यवसाय में कुछ ही लोग बचे हैं।

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि यह त्यौहार न केवल कमल के लिए अप्रत्याशित लाभ लाता है बल्कि उसके पूरे परिवार को भी इसमें व्यस्त रखता है। उनकी तरह, कई मादल निर्माता इस त्योहारी सीजन में एक लुप्तप्राय: पेशे को पुनर्जीवित करने में लगे हैं। कमल के अनुसार, इसकी शुरुआत 56 साल पहले हुई जब उन्होंने कोलकाता की एक फैक्ट्री में काम करते हुए मादल बनाने की बारीकियां सीखीं। कमल बताते हैं, मैंने सरकार से कुछ भी नहीं मांगा है। अगर मुझे कोई धनराशि मिलती, तो मैं एक नई, बड़ी दुकान शुरू कर सकता हूं। इसके लिए मैं सरकार के प्रति आभारी रहूंगा। वहीं, मादल बनाना कमल के लिए सिर्फ आय का स्रोत ही नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक विरासत है जिसे उन्होंने आगे बढ़ाया है। उन्होंने कई लोगों को प्रशिक्षित भी किया है जिन्होंने अपनी दुकानें भी खोल ली हैं।

एक मादल को बनाने में तीन-चार दिन की जटिल शिल्प कौशल की आवश्यकता होती है। त्योहारी सीजन के दौरान, कमल लगभग 200-300 मादल बेचते हैं। इसके अलावा, वह गिटार, तबला और हारमोनियम भी बनाते हैं। हालांकि, कमल इस पेशे से जुड़ी चुनौतियों के बारे में भी बताते हैं।

वहीं, पहाड़ी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से निकल कर मादल आज फिल्म उद्योग में भी अपनी पहचान कायम कर चुका है। इसमें नेपाली संगीतकार रंजीत गजमेर का उल्लेखनीय स्थान है। नेपाली संगीत के क्षेत्र में कांछा के नाम से पहचाने जाने वाले रंजीत गजमेर संगीत उद्योग में आज एक उल्लेखनीय नाम हैं। 3 अक्टूबर 1941 को दार्जिलिंग में जन्मे गजमेर ने नेपाली संगीत उद्योग में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अंबर गुरुंग से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई में प्रसिद्ध संगीतकार आरडी बर्मन के निर्देशन में कई हिंदी फिल्मी गानों में मादल बजा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। उन्होंने मादल की आवाज को हिंदी फिल्म संगीत से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जैसे ही सिक्किम में तिहार का मौसम शुरू होता है, रंजीत गजमेर का मादल से संबंध केंद्र में आ जाता है। जो धुनें कभी मुंबई के स्टूडियो में गूंजती थीं, वे सिक्किम की पहाडि़यों में गूंजती हैं, जहां कमल लामिछाने जैसे मादल निर्माता पूरी मेहनत, प्रतिबद्धता एवं समर्पण के साथ अपने वाद्ययंत्र तैयार करते हैं। गजमेर की यात्रा संगीत परंपराओं के अंतर्संबंध का एक जीवंत उदाहरण है जहां मादल पहाडि़यों को बॉलीवुड के दिल से जोड़ने वाले एक सांस्कृतिक पुल का काम करता है।

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