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भारतीयता के अनुरूप शिक्षा से ही नया भारत संभव

ललित गर्ग
शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को अलग अलग रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को संकटों में भी मुस्कुराकर चलने के लिए प्रेरित करता है। आज शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण एवं शिक्षा को हर घर तक पहुंचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं। इसकी सफलता के सशक्त माध्यम शिक्षक ही है। भारत के राष्ट्रपति, महान दार्शनिक, चिन्तक, शिक्षाशास्त्री डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 5 सितम्बर को पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 घोषित की गयी, इसको लेकर देश में शिक्षा एवं शिक्षक पर व्यापक चर्चा आरंभ हो गई है। भारत की नई शिक्षा नीति में शिक्षा व्यवस्था के अलावा शिक्षकों की योग्यता एवं गुरुता पर विशेष ध्यान दिया गया है। पूरे देश में ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’ पॉलिसी पर काम किया जा रहा है। इसके लिये अपेक्षित है कि केवल शिक्षा क्रांति ही नहीं, बल्कि शिक्षक क्रांति का शंखनाद हो। किसी भी राष्ट्र एवं समाज की बहुत बड़ी शक्ति होती है- शिक्षक वर्ग। इस वर्ग के कंधों पर राष्ट्र के भविष्य-निर्माण यानी नये भारत-सशक्त भारत-विकसित भारत का गुरुतर दायित्व है। यदि इस दायित्व में थोड़ी-सी भी भूल रह जाती है तो समाज के निर्माण की नींव खोखली रह सकती है।
वैदिक काल से ही भारत शैक्षणिक स्तर पर समृद्ध रहा है। इसी शिक्षा के आधार पर भारत विश्वगुरु कहलाता रहा है। गुरुकुल आधारित शिक्षा प्रणाली भारतीय परंपरा का प्रमुख अंग है। नालंदा और तक्षशिला की स्थापना तथा इसके प्रभाव से भारतीय शिक्षा व्यवस्था की समृद्ध परंपरा को जाना जा सकता है। लेकिन आजादी के बाद से हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश ढांचे पर अग्रसर हुई है, जिसके कारण शिक्षा मिशन न होकर, व्यवसाय बन गयी है। तमाम शिक्षक एवं शिक्षालय अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरु-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा छात्रों एवं छात्रों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्यर्वहार, मारपीट एवं अनुशासनहीनता की खबरें सुनने को मिलती हैं। इसे देखकर हमारी संस्कृति की इस अमूल्य गुरु-शिष्य परंपरा पर प्रश्नचिह्न लगने लगे है।
शिक्षक दिवस एक अवसर है जब हम धुंधली होती शिक्षक की आदर्श परम्परा एवं शिक्षा को परिष्कृत करनेे और जिम्मेदार व्यक्तियों का निर्माण करने की दिशा में नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत ठोस कार्य करें। वैश्वीकरण के इस दौर में हमारा समाज एक अज्ञात भविष्य की ओर अग्रसर दिखाई देता है। बढ़ती जनसंख्या और सीमित संसाधनों के साथ हमारे देश को नई समस्याओं का सामना करना है। भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें ऐसे ज्ञान, कौशल और दक्षता की आवश्यकता होगी जो हमारी समस्या समाधान में योगदान कर सके। हजारों की संख्या में उच्च शैक्षणिक, शोध संस्थानों तथा मानव संसाधन की प्रचुरता के बावजूद भारत में अभी ‛ज्ञान संस्कृति’ का विकास और विस्तार तीव्र गति से नहीं हो पाया है। हमारी बौद्धिक संपदा का व्यावहारिक उपयोग भी नाकाफी है। आज प्रतिभा पलायन भारत की एक बड़ी समस्या है। 2011 की जनगणना के अनुसार 26 प्रतिशत से अधिक भारतीय अभी भी निरक्षर हैं जो कि बेहद डरावना आंकड़ा हैं क्योंकि एक राष्ट्र के रूप में हमारी महत्त्वकांक्षाएं इससे ज्यादा की मांग करती है।
नई शिक्षा नीति में पारंपरिक से आधुनिक शैक्षणिक प्रतिमानों में गहरा बदलाव करके पूर्ण मानवीय क्षमता को प्राप्त करने, एक समतापूर्ण समाज विकसित करने और राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा देने के व्यापक प्रयत्न हो रहे हैं। अब अनुभवात्मक शिक्षा और समग्र छात्र विकास की दिशा में एक आदर्श बदलाव की शुरुआत हो रही है। इस समकालीन शैक्षिक परिदृश्य में, क्या सीखना है से लेकर कैसे सीखना है, इस पर जोर दिया जाता है। आलोचनात्मक सोच, निर्णय लेने और समस्या-समाधान के कौशल को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, यह उद्यमशीलता, नवाचार और अनुकूलनशीलता जैसे गुणों को विकसित करने के महत्व को रेखांकित करती है। भारत अब विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग का गवाह बन रहा है। भारत में शिक्षा ने अब खुद को पुनर्गठित किया है ताकि इस बात पर जोर दिया जा सके कि हमारे दैनिक जीवन में प्रौद्योगिकी कितनी आवश्यक है। इसी शिक्षा के कारण भारत का भाल आज भी गर्व और गौरव से उन्नत है। भारत की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए एफ. डब्ल्यू. टॉमस ने लिखा है- ‘‘भारत में शिक्षा विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहां ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।’’
महात्मा गांधी के अनुसार सर्वांगीण विकास का तात्पर्य है- आत्मा, मस्तिष्क, वाणी और कर्म-इन सबके विकास में संतुलन बना रहे। स्वामी विवेकानंद के अनुसार सर्वांगीण विकास का अर्थ है- हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म से महान। सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास हेतु शिक्षक आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार- इन सबका परिमार्जन करने का प्रयत्न करते रहते थे। इन्हीं सब चर्चाओं के मध्य हम देखेंगे कि 1986 की शिक्षा नीति में ऐसी क्या कमियाँ रह गई थीं जिन्हें दूर करने के लिये नई राष्ट्रीय शिक्षा नति को लाने की आवश्यकता पड़ी। साथ ही क्या यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उन उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम होगी जिसका स्वप्न महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद ने देखा था? यह स्वप्न है जिसके माध्यम से मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास, व्यवहार को परिष्कृत करना तथा ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को योग्य नागरिक बनाना।
शिक्षकों पर इस दुनिया में सबसे प्रेरक काम और एक बड़ी जिम्मेदारी है। शिक्षक ज्ञान का भंडार हैं जो अपने शिष्यों को अपना ज्ञान देने में विश्वास करते हैं जिससे उनके शिष्य भविष्य में दुनिया को बेहतर बनाने में सहायता कर सकेंगे। इससे ऐसी पीढ़ी निर्मित होगी जो उज्ज्वल और बुद्धिमान हो तथा वह जो दुनिया को उसी तरीके से समझे जैसी यह है और जो भावनाओं से नहीं बल्कि तर्क और तथ्यों से प्रेरित हो। हर शिक्षक अपने विद्यार्थी के व्यक्तित्व को तराशकर उसे महनीय और सुघड़ रूप प्रदान करतेे हैं। हर पल उनकी शिक्षाएं प्रेरणा के रूप में, शक्ति के रूप में, संस्कार के रूप में जीवंत रहती हैं। महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में -‘व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन है। निःस्वार्थी और जागरूक शिक्षक ही किसी दूसरे व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है।’ हमने सुपर-30 फिल्म में एक शिक्षक के जुनून को देखा। इस फिल्म में प्रो. आनन्द के शिक्षा-आन्दोलन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुति दी गयी है। आजादी के अमृतकाल यानी पिछले 75 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में हमने ऐतिहासिक उपलब्धियां प्राप्त की हैं तो कई ऐसे प्रश्न हैं जो हमारी शिक्षा व्यवस्था के समक्ष गंभीर चुनौती हैं। वैश्वीकरण और बाजारीकरण के दौर में हमारी शिक्षा व्यवस्था को भारतीयता के अनुकूल बनाने की जरूरत है। वर्तमान समय में विद्यार्थियों के संदर्भ में एक शिक्षक की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण होती जा रही है क्योंकि उसे न केवल बच्चों का बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक विकास करना है बल्कि सामाजिक, चारित्रिक, नैतिक एवं सर्वांगीण विकास भी करना है।
नई शिक्षा नीति का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को सिर्फ साक्षर नहीं बनाना है बल्कि उनमें सामाजिक और भावनात्मक कौशल का समुचित विकास करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 2030 तक स्कूली शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का लक्ष्य रखा गया है। इसमें पाठ्यक्रम की संरचना के साथ-साथ अध्यापन के तौर तरीकों और आकलन व्यवस्था में भी बदलाव को इंगित किया गया है। यह एक वृहद दस्तावेज है जिस पर विमर्श जारी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर यह आरोप भी है कि संसाधनहीनता की स्थिति में हम कैसे अपने शैक्षणिक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन ला सकते हैं? प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ रहा अर्थात् विद्या वही है, जो मुक्ति दिलाए। आज शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या नियुक्तये’ हो गया है अर्थात् विद्या वही जो नियुक्ति दिलाए। इस दृष्टि से शिक्षा के बदलते अर्थ ने समाज की मानसिकता को बदल दिया है। यही कारण है कि आज समाज में लोग केवल शिक्षित होना चाहते हैं, सुशिक्षित यानी गुण-सम्पन्न नहीं बनना चाहते। मानो उनका लक्ष्य केवल बौद्धिक विकास ही है। इन स्थितियों से शिक्षकों को बाहर निकलने में नई शिक्षा नीति से बहुत अपेक्षाएं हैं।

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