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सीबीआई अब भाजपा के ‘पिंजरे का तोता’ बना

लेखक- सनत जैन

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी, सीबीआई पर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। सीबीआई की जांच में निष्पक्षता और उसके तौर-तरीके को लेकर शुरुआती दौर पर सीबीआई के ऊपर सभी को बहुत भरोसा था। पिछले 2 दशकों में यह भरोसा पूरी तरह से टूटता हुआ दिख रहा है। सीबीआई की निष्पक्षता पर कई बार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में आलोचना की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा था।

2014 से केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार है। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने एक बार फिर सीबीआई जैसी महत्वपूर्ण संस्था के ऊपर पिंजरे में बंद तोते के रूप में टिप्पणी की है। यह टिप्पणी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ऊपर जिस तरह से सीबीआई ने पिछले दो वर्षों से अपना शिकंजा कसकर रखा हुआ था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जैसे ही ईड़ी के मामले में अरविंद केजरीवाल की जमानत हुई। उसी मामले में 2 साल के बाद सीबीआई ने जेल के अंदर से केजरीवाल की गिरफ्तारी कर ली। सुप्रीम कोर्ट को इस कारण से सीबीआई के ऊपर सबसे सख्त टिप्पणी करनी पड़ी। 2013 में कोयला घोटाले की जांच में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरे का तोता कहा था। अब केजरीवाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वही टिप्पणी की है। सीबीआई अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करती है। सीबीआई की कार्य प्रणाली से यह खुलासा, जांच एजेंसी की स्टेटस रिपोर्ट को, सरकार की मंजूरी के बाद किया गया। यह एक गंभीर मुद्दा है, जिसने सीबीआई की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

सीबीआई का गठन एक स्वतंत्र जांच एजेंसी के रूप में हुआ था। जिसका उद्देश्य अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी जांच कर कार्रवाई करना था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, सीबीआई के अधिकारियों के ऊपर राजनीतिक प्रभाव बढ़ता गया। केंद्र में किसी भी दल की सरकार हो। सीबीआई का उपयोग सरकारें राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने अथवा बचाने के लिए किया जाने लगा। पिछले दो दशकों में पूरी तरह से यह स्पष्ट हो गया है। प्रश्न उठता है, क्या सीबीआई अपनी वैधानिक भूमिका बनाए रखने में स्वतंत्र हैं? या सरकार के इशारे पर काम करने वाली राजनीतिक उपकरण का हिस्सा बन चुकी है? सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सीबीआई की स्वतंत्रता पर सरकार का शिकंजा है। सरकार के विपक्षियों का उत्पीड़न करने की सीबीआई जांच एजेंसी की भूमिका सामने आई है।

लोकतंत्र की शासन व्यवस्था में, जांच एजेंसियों का निष्पक्ष होना, आवश्यक है। सभी जांच एजेंसियां कानून और न्याय के लिए रीड़ के हड्डी की तरह होती हैं। अगर जांच एजेंसियां राजनीतिक दवाब में काम करेंगी, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली पर विश्वास करना संभव नहीं होगा। सीबीआई के अधिकारी कहते हैं, वह निष्पक्षता के साथ काम करने की कोशिश करते हैं। कई मामलों में सरकार की स्वीकृति के बिना कार्रवाई करना संभव नहीं होता है। शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति, पोस्टिंग और कार्यकाल केंद्र सरकार ही तय करती है। ऐसी स्थिति में सरकार को इग्नोर करना सीबीआई के वश की बात नहीं है। कुछ इसी तरह की स्थिति चुनाव आयोग की देखने को मिल रही है। केंद्रीय प्रवर्तन निदेशालय की भी लगभग यही स्थिति है। संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता और जवाबदेही तय करने के लिए वर्तमान व्यवस्था को बदलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। संवैधानिक संस्थाओं और जांच एजेंसियों को सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग आयुक्त और सदस्यों की नियुक्ति पर एक फैसला दिया था। जिसमें सीजेआई, प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष की कमेटी को चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया था। जिसे सरकार ने कानून बनाकर पलट दिया। अब प्रधानमंत्री उनके द्वारा एक नियुक्त मंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कर रहे हैं। इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट चुप है। वर्तमान चुनाव आयोग को लेकर 68 फ़ीसदी जनता में यदि अविश्वास है, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे चिंता का विषय है। समय की मांग है, सीबीआई सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं को स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं अधिकार संपन्न बनाया जाए। सरकारों के ऊपर उनकी निर्भरता नहीं हो। इसके लिए जरूरी है, संवैधानिक संस्थाओं से राजनीतिक नियंत्रण पूरी तरह से समाप्त किया जाए।

संवैधानिक संस्थाओं को न्यायपालिका तथा संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। भारतीय संविधान में न्यायपालिका और संसद ही सर्वोच्च संस्थाएं हैं। संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज उनके निर्णय, संवैधानिक प्रमुख की नियुक्ति इत्यादि को लेकर जिस तरह के सवाल सरकार पर उठ रहे हैं। न्यायपालिका की जिम्मेदारी है कि वह न्यायपालिका और संसद की सर्वोच्चता जो फिलहाल खत्म होती जा रही है, इसे फिर से बहाल करे। भाजपा के नेता और प्रवक्ता भविष्य में सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता नहीं कह पाएंगे। क्योंकि अब यह टैग केंद्र की मोदी सरकार के ऊपर भी चिपक गया है।

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