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अटलजी भारतीय लोकतंत्र के मानस पुत्र

सुमित पचौरी

कुछ लोग चांदी की चम्मच मुंह में लिये पैदा होते हैं और वे इतिहास की धारा में आगे बढ़ते जाते हैं। लेकिन कुछ लोग संघर्ष के लिये जन्मते हैं। वे इतिहास की धारा को मोड़ देते हैं। 25 दिसंबर के दिन इस योजना का भूमिपूजन न केवल श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति सच्चीे श्रद्धांजलि है, बल्कि जल संकट से जूझते देश के लिए एक नई उम्मीद भी है।

बुंदेलखंड के निवासियों से देश के मुखिया का यह आह्वान है कि वे इस परियोजना को एक महायज्ञ के रूप में देखें और इसके लाभों को आत्मसात करें। यह परियोजना केवल जल संकट का समाधान नहीं है, बल्कि यह क्षेत्र के विकास, समृद्धि और खुशहाली का द्वार खोलने वाली है।

कुछ वर्ष पूर्व इतनी स्पष्टता से पाकिस्तान को हकीकत का अहसास यदि किसी अन्य राजनेता ने कभी कराया होता तो जम्मू कश्मीर आज न तो विवाद का केन्द्र बनता होता और न कश्मीर की वादियॉं केसर की क्यारियॉं लहूलुहान होती।

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोकतंत्र के ऐसे मानस पुत्र हैं जिसकी प्रतिभा से विश्व चमत्कृत हैं। देश में गैर कांग्रेसवाद की धारा को उन्होंने आगे बढ़ाया और गैर कांग्रेसी सरकार की अवधारणा को न केवल वास्तविकता में बदला अपितु गठबंधन राजनीति को पुष्पित और पल्लवित किया। देश में असल संघवाद की नींव अटल जी ने रखी। उन्होंने गठबंधन की राजनीति को भारत को जोड़ने का जरिया बनाया तभी से उत्तर दक्षिण के बीच की स्पर्धा समाप्त हो गयी। 25 दिसम्बर 1926 में ग्वालियर के संभ्रांत कुल में जन्में अटल बिहारी वाजपेयी की छात्र जीवन से समाज सेवा, साहित्य और राजनीति में गहरी रुचि रही और उन्होंने जहॉं छात्र राजनीति में बुलंदियां हासिल की वहीं राष्ट्रीय वाद विवाद प्रतियोगिताओं में अपना जौहर दिखाया। राजनीति शास्त्र उनका प्रिय विषय रहा तथा प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित की। स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने भाग लिया। राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में अनेकों राष्ट्रीय अनुष्ठानों और अभियानों में भाग लिया। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम है। राष्ट्र धर्म, पांचजन्य वीर अर्जुन का वर्षों तक सफल संपादन का श्रेय उन्हें प्राप्त हुआ। जनसंघ के संस्थापक, महान राष्ट्रवादी डॉं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जब भारतीय अखंडता का उद्घोष करते हुए कश्मीर आन्दोलन में भाग लिया। यह कलमकार आन्दोलन का साक्षी बना। डॉं0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन नेहरू सरकार की कश्मीर नीति की सिरे से आलोचना की थी और इस मुद्दे पर वे पं. नेहरू की मंत्रि परिषद से भी इस्तीफा देकर बाहर आ गये थे। डॉं. मुखर्जी ने दो विधान, दो निशान और दो प्रधान के राजनैतिक दर्शन को आत्मघाती बताया था। तभी से अटल बिहारी वाजपेयी, डॉं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सक्रिय सहयोगी बने। डॉ. मुखर्जी ने उनके जीवन की धारा मोड़ दी। अटल जी के कदम कोमल भाव भूमि से राजनीति के बीहड़ों की ओर मुड़ गये। पत्रकारिता से मानों अटल जी सक्रिय राजनीति में पहुंच गये और डॉं. मुखर्जी के श्री नगर जेल में अवसान के वाद कश्मीर को भारत का अखंड अंग प्रतिपादित करने के लिये समर्पित हो गये। भविष्य में जब इतिहास का पुनरावलोकन होगा यह बात सामने आवेगी कि यदि कांग्रेस की कथित धर्म निरपेक्षता के पाखंड पर जनसंघ अंगुली न उठाता तो जम्मू कश्मीर कब का जुदी राह ले चुका होता।

डॉं. मुखर्जी के निधन के बाद उनके अधूरे लक्ष्य को हासिल करने का अटल जी ने वीड़ा उठाया। तभी पं. दीनदयाल  उपाध्याय भी असामयिक मृत्यु का शिकार हुए और अटल जी को भारतीय जनसंघ के नेतृत्व की कमान संभालना पड़ी। वे बलरामपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद 1957 में चुने गये। विदेश नीति पर जब अटल जीने संसद में भाषण दिया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में अपनी क्षमताएं अवश्य साबित करेंगे। पं. नेहरू ने कहा था कि बोलने के लिये वाणी चाहिए और चुप रहने के लिये वाणी और विवेक दोनों आवश्यक हैं। अटल जी सभी गुणों से संपन्न हैं। राष्ट्रीय मामलों में उनकी सजगता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि अटल जी ने ही  चीनी घुसपैठ पर बहस आरंभ की थी जो बाद में 1962 के चीन आक्रमण से सत्यापित हुई। तब अटल जी ने श्वेत पत्र की मांग की थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने 1962 और 1965 क्रमशः चीनी और पाकिस्तानी आक्रमण के समय भारत का दृष्टि कोण एक जुटता के साथ समग्र रूप में प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया था। इसकी न केवल कांग्रेस बल्कि दुनिया के देशों ने प्रशंसा की थी।

अटल जी ने अफ्रीकी देशों में भारत की कश्मीर नीति का संसदीय दल के नेता के रूप में प्रतिपादन किया था। नरसिंहराव सरकार ने जब वाजपेयी को यूएनओ में भेजा और उन्होंने कश्मीर नीति का पुरजोर समर्थन किया। पाकिस्तान की राजनीति में भूचाल आ गया था। 1975 में आपातकाल में जेल गये और उनकी संघर्ष प्रियता काव्य के रूप में प्रस्फुरित हुई। उनके राजनेता के व्यक्तित्व और कवित्व मे बेजोड़ मेल है। यही बात है कि राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि यदि अटल जी ने राजनीति में कदम नहीं रखे होते तो वे मूर्घन्य साहित्य मनीषि होते। राजनेता के रूप में उनका अवदान जहां प्रखर विरोध के रूप में दृष्टि गोचर हुआ वहीं विदेश मंत्री के रूप में 1977 में उन्होंने सभी को चकित किया। दुनिया के साम्यवादी राजनेता और पाश्चात्य दुनिया के राजनेताओं ने उनमें निरपेक्षवाद का स्फटिक रूप पाया। यही कारण है कि वे राजग सरकार को राजनैतिक और आर्थिक स्थायित्व देने में सफल हुए। परमाणु शक्ति के रूप में देश का मान सम्मान बढ़ाते हुए चहुंमुखी प्रगति का उन्होंने पिछले छैः वर्षों में जो ताना बाना बुना, मुद्रा स्फीति, मंहगायी पर नियंत्रण और तेईस दलों की सरकार चलाना अटल बिहारी वाजपेयी के साहसिक कौशल की मिसाल है। अटल जी ने 1983 में भाजपा राष्ट्रीय कार्य समिति में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन बनाने का जो संकल्प पारित कराया था उसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूर्ण कर दिखाया। राजग के गठन ने भारत के लोकतंत्र को दो ध्रुवीय बनाया जो लोकतंत्र के लिये उनका अवदान है।

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